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विकास के दावों के बीच भूख की त्रासदी झेलने के लिए लोग मजबूर

विश्‍वनाथ झा
यह अपने आप में एक बड़ा विरोधाभास है कि जिस दौर में दुनिया भर में अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों के जरिए लगातार विकास का हवाला दिया जाता है, उसमें करोड़ों लोगों को पेट भरने के लिए खाना तक नहीं मिलता है। यह अफसोसनाक हकीकत एक तरह से विकास के दावों के सामने आईना है, जो इस बात पर विचार करने जरूरत को रेखांकित करता है कि इसकी दिशा क्या है और आखिर यह किसके लिए है।
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र ने बुधवार को ‘ग्लोबल रिपोर्ट आन फूड क्राइसिस’ यानी खाद्य संकट पर वैश्विक रिपोर्ट में यह खुलासा किया कि विश्व के उनसठ देशों के लगभग 28.2 करोड़ लोग सन 2023 में भूख से तड़पने को लाचार हुए। भूख का सामना करने वाले लोगों की तादाद 2022 के मुकाबले 2.4 करोड़ ज्यादा रही।रिपोर्ट के मुताबिक, भूखे रहने वालों में बच्चे और महिलाएं सबसे ज्यादा हैं। इसके अलावा, बत्तीस देशों में पांच वर्ष से कम उम्र के 3.6 करोड़ अधिक बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। साथ ही युद्ध और अन्य प्राकृतिक आपदाओं की वजह से बढ़ते विस्थापन के बीच पिछले वर्ष कुपोषण की समस्या और ज्यादा गहरी हो गई।

सवाल है कि दुनिया भर में और खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय संगठनों में अगर भूख सहित कई बड़ी समस्याओं से लड़ने के लिए सामूहिक जिम्मेदारी की बात की जाती है तो इस त्रासदी के लिए किसे जवाबदेह ठहराया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि बीस देशों में भूख की मुख्य वजह वहां चल रहे हिंसक संघर्ष थे।

दूसरा बड़ा कारण यह था कि बढ़ते तापमान या मौसम से संबंधित आपदाओं, कीटों के हमले और महामारी के बीच करीब सात करोड़ सत्तर लाख से ज्यादा लोगों को उच्च स्तर की गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा। इसी तरह, खाने-पीने की चीजों की महंगाई, आयातित खाद्य वस्तुओं पर निर्भरता, उच्च ऋण स्तर आदि वजहों से भी लोगों को भूख की समस्या से रूबरू होना पड़ा। सवाल है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से या वैश्विक स्तर पर भुखमरी के लिए जिन कारणों को चिह्नित किया गया है, उसका हल निकालने की कोशिश किसे करनी है और वह कब होगा।

यह एक जगजाहिर तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्र या फिर अन्य संस्थाओं की ओर से विश्व भर में भूख के संकट पर अक्सर अध्ययन रपटें जारी की जाती हैं। उसमें कारण भी बताए जाते हैं। मगर उन्हें दूर करने को लेकर बात औपचारिकताओं से आगे नहीं बढ़ पाती। अन्यथा क्या वजह है कि वर्षों से भुखमरी के हालात कायम रहने के बावजूद इस दिशा में अब तक कोई ठोस हल सामने नहीं आ सका है। उल्टे आर्थिक और सामरिक स्तर पर दुनिया के ताकतवर देश भुखमरी की त्रासदी की ओर ध्यान दिलाए जाने पर भी उसके समाधान को लेकर शायद ही कोई रुचि दिखाते हैं। गरीबी, जलवायु परिवर्तन आदि से उपजी समस्याओं से अगर कोई देश ज्यादा प्रभावित होता है तो सक्षम देश उनकी मदद के लिए क्या करते हैं? संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि युद्धग्रस्त गाजा में सबसे ज्यादा लोगों ने अकाल की गंभीर स्थिति का सामना किया। सवाल है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के होते हुए भी युद्धग्रस्त इलाकों में ऐसे हालात कैसे लंबे समय तक बने रहते हैं और युद्ध को खत्म कराने के प्रयास महज दिखावे के क्यों साबित होते हैं कि लोगों के सामने भूख से तड़पने की नौबत आती है।

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