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ब्रिक्स में मोदी के रुख अहम और विचारणीय

ब्रिक्स में मोदी के रुख अहम और विचारणीय

हरिशंकर व्यास
लाख टके का सवाल है कि भारत का रूपया चीन की युआन, रूस के रूबल करेंसी के लेन-देन में सुरक्षित है या डालर की व्यवस्था में? आजादी के बाद विश्व व्यापार में भारत का डालर में लेन-देन क्या भरोसेमंद या सुरक्षित था या नहीं? और यदि सुरक्षित था तो वह क्यों चीन-रूस की युआन-रूबल की नई विश्व लेन-देन व्यवस्था का ग्राहक या साझेदार बने? क्या चीनी वर्चस्वता की व्यवस्था में भारत की व्यापारिक-आर्थिक संप्रभुता को अधिक गांरटी होगी? यह सवाल कजाक की ब्रिक्स बैठक में पुतिन, शी जिन पिंग के एजेंडे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूख में अंहम और विचारणीय है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने मिसाल दी कि रूस और चीन अब अपना 95 प्रतिशत व्यापार रूबल और युआन में कर रहे है। उन्हे अमेरिकी डालर केंद्रीत अंतरराष्ट्रीय लेन देन व्यवस्था, स्विफ्ट की जरूरत नहीं है।

सवाल है पुतिन को ऐसी लॉबिग करने की जरूरत क्यों है? इसलिए क्योंकि यूक्रेन की लड़ाई के बाद पश्चिमी देशों ने रूस पर पाबंदियां लगाई है। वही चीन अपने आर्थिक साम्राज्य, भविष्य की सभ्यतागत धुरी के उद्देश्यों में, दुनिया के स्थाई नबर एक औद्योगिक कारखाने, व्यापार की नंबर एक हैसियत में स्वभाविक तौर पर सालों से चाह रहा है कि वैश्विक लेनदेन में डालर की जगह उसकी युआन करेंसी का उपयोग हो।
कजाक की ब्रिक्स बैठक का यह प्रमुख उद्देश्य था। लेकिन गनीमत है जो भारत और ब्राजिल चीन के असली मकसद (वर्चस्वता) को लेकर सर्तक है। चीन ने पहले इंफ्रास्ट्रक्चर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव ( बीआरआई) और अब ब्रिक्स के नाम पर नई वैश्विक वित्तिय व्यवस्था का तानाबाना बनाया है। भारत उससे बचता, दूर रहता दिख रहा है। और यह सही है। कोई हर्ज नहीं है जो दो देश अपनी-अपनी करेंसी में एक-दूसरे याकि द्विपक्षीय आधार पर व्यापार करें। रूस और भारत में दशकों रूबल और रूपए में लेनदेन रहा है।

अभी भी है। लेकिन भारत कैसे चीनी करेंसी युआन की प्राथमिकता में अपना लेनदेन बना सकता है? रूस, चीन, पाकिस्तान जैसे मवाली देशों की करेंसियों के एक्सचेंज में रूपए को क्यों बांधे? पहली बात इन करेंसियों में वैश्विक पैमाने की संपदा और लेनदेन नहीं है। दूसरे रूस और चीन जब व्यवहार में मवालीपना, देशों की एकता-अखंडता में हमलावर, वर्चस्ववादी, आंतकवाद के पोषक तथा हवाला लेन-देन वाले है तो इनकी टोकरी में अपने रूपए को रख भारत कितनी जोखिम मोल लिए हुए होगा? चीन और रूस नियंत्रित किसी भी सिस्टम में पारदर्शिता क्या हो सकती है, इसे समझना मुश्किल नहीं है।

हकीकत है कि एक योरोपीय देश बेल्जियम से संचालित अंतरराष्ट्रीय पेमेंट सिस्टम की पारदर्शिता पर कभी ऊंगली नहीं उठी। इसकी करेंसी डालर है। इसलिए आंतकवाद, रूस-चीन-पाकिस्तान जैसे मवाली देशों के दो नंबरी या आंतकवादी फंडिग की लेन-देन का पता लग जाता है। कल्पना करें, इसकी जगह मास्को या बीजिंग में युआन करेंसी के अंतरराष्ट्रीय पेमेंट सिस्टम में काम हुआ तो उससे भारत क्या आंतकी फंडिग का सही ब्यौरा पा सकेगा? यह एक्सचेंज रूपए की रेट में उतार-चढ़ाव में लगड़ी मारते हुए क्या नहीं होगा? अन्य शब्दों में नए अंतरराष्ट्रीय पेमेंट सिस्टम में भारत के लिए सुरक्षा, भरोसे, पारदर्शिता की क्या गारंटी है? सही है मौजूदा स्विफ्ट व्यवस्था में डालर के कारण अमेरिका का रूतबा है।

अमेरिका और पश्चीमी देश हमलावर रूस पर पाबंदी लगाते है या आंतकवादी संगठनों के खिलाफ जंग का ऐलान करते है तो रूस और आंतकी संगठनों की सचमुच कमर टूटती है लेकिन उससे भारत को नुकसान है या लाभ? क्या भारत को सीमा पर चीन, पाकिस्तान के मवालीपने का अनुभव नहीं है? क्या आंतकियों का उसे स्थाई खतरा नहीं है? फिर इस सत्य की भी कैसे अनदेखी हो सकती है कि विश्व व्यापार का अस्सी प्रतिशत लेनदेन, बिलिंग डालर में हो रही है वहीं दुनिया भर के बैंकों का विदेशी मुद्दा कोष 60 प्रतिशत डालर करेंसी में रिजर्व है।
इसलिए अच्छा हुआ, जो कजाक में पुतिन-शी जिन पिंग के वेकल्पिक अंतरराष्ट्रीय पेमेंट सिस्टम के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्साह नहीं दिखाया।

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